नमस्कार साथियों मेरे पाठकों को मेरा प्यार भरा नमस्कार इस लेख में हिंदी भाषा के संबंध के लेख में इस कंटेंट को बनाने में अन्य वेबसाइट वह अन्य प्रमुख पुस्तकों का सहारा लिया गया है संदर्भ ग्रंथ के रूप में। तो चलिए शुरू करते हैं भाषा के इतिहास की और आप सभी का दुलार प्यार बहुत मिलेगा इसी आशा और विश्वास के साथ हम आगे चलते हैं।
भाषा
भाषा का अपना ही एक प्राचीन इतिहास रहा है समय के साथ-साथ भाषा का रूप परिवर्तित होने से कालांतर में अनेक भाषाओं, उप भाषाओं और बोलियां का विकास होता गया। हिंदी भाषा में भी अपना वर्तमान स्वरूप प्राप्त करने में काफी लंबी समय यात्रा की है।
हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
संसार की प्रत्येक भाषा की एक सैद्धांतिक व्यवस्था होती है हिंदी एक भारतीय आर्य भाषा है हिंदी शब्द का मौलिक अर्थ है हिंद का अर्थात भारतीय भाषा के अर्थ में हिंदी का प्रयोग फार्सियों और अरबों ने किया पंडित रामनरेश त्रिपाठी के अनुसार ईरानी महाभारत काल से ही भारत को हिंद कहने लगे थे अतः स्पष्ट है कि कालांतर में हिंद देश के निवासियों को हिंदुस्तानी और उनकी भाषा को हिंदी कहा जाने लगा।
भारतीय आर्य भाषाएँ
विश्व में अनेक भाषाएं बोली जाती है विश्व की लगभग 3000 भाषाओं को मुख्यतः 12 भाषा परिवारों में विभाजित किया गया है।
- भारोपीय,
- द्रविड़,
- चीनी,
- सिमेटिक,
- टिमेटिक
- आग्नेय
- यूराल
- बांटू
- रेड इंडियन
- काकेशस
- सुडानी
- बुशमैन
1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएँ
( 1500 ई. पू. से 500 ई. पू.)
2. मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा
(500 ई. पू. से 1000 ई. पू.)
3.आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ
( 1000 ई. से अब तक )
1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएँ
( 1500 ई. पू. से 500 ई. पू.).
- प्राचीन भारतीय आर्य भाषा को मुख्यतः दो भाषाओं में बाँटा गया है।
1. वैदिक संस्कृत
2. लौकिक संस्कृत
वैदिक संस्कृत :- प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक साहित्य में दृष्टिगोचर होता है वैदिक संस्कृति को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है संहिता, ब्राह्मण एवं उपनिषद्।
- सहिंता - संहिता के अंतर्गत चारों वेद आते हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद।
- ऋग्वेद संस्कृत का प्राचीनतम ग्रंथ है इसमें 10 मंडल 1028 सुत एवं 10580 ऋचाएं हैं ऋग्वेद में देवताओं की स्थितियों से संबंधित श्लोक हैं।
- यजुर्वेद कृष्ण एवं शुक्ला इन दो रूपों में सुरक्षित है कृष्ण यजुर्वेद संहिता में मंत्र भाग एवं गद्य में व्याख्यात्मक भाग साथ-साथ संकलित किए गए हैं किंतु शुक्ल यजुर्वेद संहिता में केवल मंत्र भाग संग्रहित है।
- सामवेद इसमें सोम यज्ञ में वीणा के साथ गए जाने वाले सूक्त को गैय पदों के रूप में सजाया गया है।
ब्राह्मण प्रत्येक संहिता के अपने-अपने ब्राह्मण ग्रंथ हैं।
संकलन है।
ब्राह्मण प्रत्येक संहिता के अपने - अपने ब्राह्मण ग्रन्थ हैं।
वेद
ऋग्वेद - ऐतरेय ब्राह्मण
शुक्ल यजुर्वेद- शतपथ ब्राह्मण
कृष्ण यजुर्वद- तैत्तिरीय ब्राह्मण
सामवेद- ताण्डव अथवा पंचाविश ब्राह्मण
अथर्ववेद- गोपथ ब्राह्मण
1.उपनिषद् उपनिषद् वस्तुतः ब्राह्मण ग्रन्थों के ही अन्तिम भाग हैं। उपनिषदों कीसंख्या 108 है, परन्तु इनमें 12 उपनिषद् ही मुख्य हैं - ईश, केन, कठ, प्रश्न,बृहदारण्यक, ऐतरेय, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, मुण्डक, माण्डूक्य, श्वेताश्वेतर तथाकौषीतकी।
2.विद्वानों ने वैदिक ध्वनियों की संख्या 52 मानी है। इसमें 13 स्वर तथा 39व्यंजन हैं।
स्वर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, , लू, ए, ओ, ऐ, औ
व्यंजन क, ख, ग, घ, ड, च, छ, ज, झ, अ, ट, ठ, ड, ळ, ढ, ळह, ण,त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, मं, य, र, ल, व, श, ष, स, ह,अनुस्वार (•), विसर्ग (:), जिह्नामूलीय (क़, ख), उपध्मानीय (प, फ़)। वैदिक संस्कृत में तीन लिंग (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग व नपुंसकलिंग) तथा तीनवचनों (एकवचन, द्विवचन व ब्रहुवचन) का प्रयोग किया जाता है।
लौकिक संस्कृत
पाणिनि की अष्टाध्यायी, रामायण, महाभारत, पुराण अदि की रचना लौकिकसंस्क्त में ही हुई है। लौकिक संस्कृत में केवल 48 वर्ण रह गए। ळ, ळह,जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय के लुप्त हो जाने के कारण लौकिक संस्कृत में 48ध्वनियाँ ही शेष रह गई। लौकिक संस्कृत में वैदिक संस्कृत की अपेक्षा क्रिया रूपोंऔर धातु रूपों में विशेष अन्तर आ गया है।
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ
(500 ई.पू. से 1000 ई. तक)
भगवान बुद्ध के जन्म तक भारतीय आर्य भाषा विकास के मध्यकाल में प्रवेशकर चुकी थी। 500 ई. प. से 1000 ई. तक के 1500 वरषों तक भारतीय-आये भाषा विभिन्न 'प्राकृतो' तथा 'अपभ्रेंश' के रूप में विकसित होती हुई.आधुनिक भारतीय आर्य भाषा की जननी बनी। आर्य भाषा के मध्यकालीनस्वरूप को तीन भागों में बाँटा गया. जिनका वण्णन निम्नलिखित है।
पालि
पालि को प्रथम प्राकृत भी कहा जाता है। इसमें बौद्ध साहित्य की रचनाहुई है। इस भाषा में त्रिपिटक ग्रन्थों -सुत्त पिटक, विनय पिटक एवं आभिधम्म पिटक की रचना हुई। 'सत्त पिटक' साधारण बातचीत के ढंगपर दिए गए बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। विनय पिटक में बुद्ध की उनशिक्षाओं का संकलन है. जो उन्होंने समय-समय पर संघ-संचालन कोनियमित करने के लिए दी थीं। 'अभिधम्म पिटक' में चित्त, चेतसिकआदि धर्मों का विशद विश्लेषण किया गया है।
पालि भारत की प्रथम देशीय भाषा थी। पालि में लिखे कुछ प्रमुख ग्रन्थहैं-मिलिन्दपन्हो, महावंश, दीपवंश, अट्ठकथा साहित्य आदि। पालि भाषाके तौन व्याकरण उपलब्ध हैं- सद्दनीति व्याकरण, कच्चान व्याकरणतथा मोग्गलान व्याकरण। सद्दनीति व्याकरण की रचना अगगवंश ने कीथी, जो एक बर्मीं भिक्षु थे।
श्रीलंका के मोग्गलान ने 'मोग्गलान व्याकरण' तथा कच्चान ने 'कच्चान व्याकरण की रचना की थी। पालि भाषा मुख्यतः मगध, उज्जयिनी,कलिंग, कोसल आदि स्थानों पर प्रचलित थी। मुख्य रूप से पालि को मध्य प्रदेश की बोली माना जाता है।
पालि में वणों का वर्गीकरण निम्न ढंग से किया गया है
पालि भाषा के स्वर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऍँ, ए, ओं, ओ।
व्यंजन क, ख, ग, घ, ड, च, छ, ज, झ, अ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त,थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, स, ह, व, अं।
प्राकृत
प्राकृत को द्वितीय प्राकृत कहा जाता है। प्राकृत प्राचीन रूप से सर्वाधिक प्रचलित भाषा रही है। हेमचन्द्र, मार्केण्डेय आदि विद्वानों ने प्राकृत कीउत्पत्ति संस्कृत से मानी है। वररुचि ने सर्वप्रथम 'प्राकृत प्रकाश' के नामसे प्राकृत व्याकरण लिखा तथा हेमचन्द्र ने 'प्राकृत व्याकरण' की रचनाकी। हेमचन्द्र को प्राकृत के 'पाणिनि' की संज्ञा दी जाती है।
वररुचि ने प्राकृत भाषा के चार भेद माने हैं- महाराष्ट्री, पैशाची, मागधीऔर शौरसेनी, परन्तु हेमचन्द्र ने अपने 'प्राकृत व्याकरण' में प्राकृत कोतीन भेदों में वर्गीकृत किया- अर्धमागधी (आषीं), चूलिका पैशाची औरअपभ्रंश। भरतमुनि ने नाद्यशास्त्र में सात प्राकृतों का उल्लेख कियाशौरसेनी, मागधी, अर्धमागर्धी, दक्षिणात्या, बाहलीक, अवन्तिजा तथाप्राच्या। साहित्यिक महता की दृष्टि से शौरसेनी, पैशाची, महाराष्ट्री,मागधी और अर्धमागधी मुख्य हैं।
प्राकृत भाषा के प्रकार
प्राकृत के निम्नलिखित प्रकार है:-
शौरसेनी प्राकृत: शौरसेनी प्राकृत मुख्यत: मथ्रा के आस-पास की बोलीथरी। यह मध्यदेश की प्रमुख बोली थी। आचार्य भरतमुनि के अनुसारऔौरसेनी नाटकों के गद्य भाग की भाषा थी। बाद में इससे पंजाबी तथाअन्य हिन्दी भाषा समूहों की उत्पत्ति हुई। दिगम्बर जैनाचार्यों ने अपने महाकाव्यशौरसेनी में ही लिखे। आधुनिक विद्धानों के अनुसार, शौरसेनी प्राकृत से ही आगे
चलकर महाराष्ट्री प्राकृत का विकास हआ। जैन साहित्य के अतिरिक्त कर्पूरमंजरी(राजशेखर), चन्द्रलेखा (रुद्रदास), आानन्दसुन्दरी (घनश्याम) आदि रचनाओं में भीशौरसेनी प्राकृत का प्रयोग हुआ है।
अर्धमागधी अद्धमागधी मुख्यत: प्राचीन काल में मगध की साधारण-बोलचाल की साहित्यिक भाषा थी। जॉर्ज प्रियर्सन के अनसार अर्द्वमागधी मध्यदेश (शूरसन यामथुरा) तथया मंगध के मध्यवर्ती देश (कोसल या अयोध्या) की भाषा थी। जैन धर्मके अन्तिम (24वें ) तीर्थकर महावीर स्वामी ने अपने घर्मोपदेश अद्वमागधी में ही दिएथ। इसी कारण इनके उपदेशों के संकलन को आगम कहा जाता है। आचार्य हेमचन्द्रने अर्धमागधी को 'आर्ष प्राकृत' कहा है। जैनाचा्यों ने भी अद्धमागधी को विभिन्ननामों से पुकारा; जैसे- आदिभाषा, आर्ष, आर्षी आदि।
मागधी :मागधी प्राचीन काल में दक्षिण बिहार (मगध) में प्रचलित थी। पालित्रिपिटक में भगवान बुद्ध के उपदेशों की भाषा को मागधी कहा गया है। मार्कण्डेय नेमागधी की उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत से बताई है। अश्वघोष के नाटकों में मागधी प्राकृत के प्राचीनतम रूप में परिलक्षित होते हैं।
प्राकृत व्याकरण के अनुसार मागधी प्राकृत की विशेषताएँ थीं-र' के स्थान पर लका, स, श, ष के स्थान पर 'शं का उच्चारण तथा अकारान्त शब्दों के कता कारक एकवचन की विभक्ति ए' का प्रयोग; जैसे-जन-जने। मुद्राराक्षस (विशाखदत्त),मृच्छकटिकम् (शूद्रक) आदि रचनाओं में यत्र-तत्र मागधी के दर्शन होते हैं।पैशाची यह उत्तर -पश्चिम में कश्मीर के आस- पास की भाषा थी। हा्नले ने इसेद्रविड़ों द्वारा प्रयुक्त भाषा तथा पुरुषोत्तम देव ने संस्कृत और शौरसेनी का विकृत रूपमाना है। पैशाची उन आर्यों की भाषा है, जिन्होंने आर्य संस्कृत को पूर्ण रूप से नहींअपनाया था। इसके अवशेष चीन, तुर्किस्तान, काफिरस्तान, गान्धार आदि में पाए गएशिलालेखों में मिलते हैं। पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान और कश्मीर की भाषाओं मेंपैशाची का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है।
महाराष्ट्री : साहित्यिक प्राकृतों में महाराष्ट्री प्राकृत सर्वाधिक विकसित है। प्राकृतवैयाकरणों ने इसे आदर्श प्राकृत माना है और सबसे पहले उन्होने ही इसका विवेचनकिया। संस्कृत नाटकों में प्राकृत-पद्य रचना प्रायः महाराष्ट्री में ही हुई है। काव्य भाषाके रूप में यह पूरे उत्तर भारत में प्रचलित रही है। कालिदास तथा हर्ष ने अपनेनाटकों के गीत इसी भाषा में लिखे।
अपभ्रंश
अपभ्रंश भाषा मध्यकालीन आर्य भाषा की तीसरी अवस्था है। अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थहै- बिगड़ा हुआ या गिरा हुआ। आाचार्ये हेमचन्द्र व वाग्भट्ट ने अपभ्रंश को ग्रामभाषाकहा तथा दण्डी ने इसे 'आभीरादि की भाषा कहा है।
अपभ्रृंश शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख पतंजलि ने अपने महाभाष्य' में किया है। इस ग्रन्थ में उन्होंने उदाहरण देकर अपभ्रश सम्बन्धी विचार स्पषट किया है।
डॉ. उदय नारायण तिवारी ने अपनी पुस्तक हिन्दी भाषा का उद्गम व विकास मेंअपभ्रेंश का जन्मकाल 700 ई. स्वीकारा है।
डॉ. नामवर सिंह भी अपने ग्रन्थ हिन्दी के विकास में अप्रंश का योगदान' मेंअपभ्रेश का काल 700 ई. स्वीकार करते हैं।
* डॉ. भोलानाथ तिवारी अपभ्रंश का जन्म 500 ई. के आस- पास मानते हैं।
मार्कण्डेय व इतर आचायों ने अपभ्रंश के कुल तीन भेद बताएं हैं,
नागर (गुजरात की बोली)
ब्राचड़ (सिन्ध की बोली)
उपनागर (राजस्थान की बोली)
दूहा अर्थात् दोहा भी मूलतः: अपभ्रंश भाषा का ही छन्द है।
आगे हम सभी तथ्यों का विस्तार से वर्णन करेंगे।
पश्चिम में अभ्वाला छাवनी से लेकर पुर्व में पर्णिया (विहार व बंगाल के बीचक्री सीमा) तक तथा उत्तर में बद्रीनाथ से लेकर खण्डवा (मध्य प्रदेश कीदक्षिणी सीमा) तक हिन्दी बोली जाती है। इस विस्तत क्षेत्र के अन्तर्गत बिहार,हुत्तर प्रदेश, छत्तासगढ़, झारखण्ड, उत्तराखण्ड, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश,दिल्ली, राजस्थान व मध्य प्रदेश सम्मिलित हैं। इस परे क्षेत्र को ही हिन्दी प्रदेशकहते हैं।
हिन्दी की उपभाषाएँ तथा उनकी बोलियाँ
हिन्दी के अन्तर्गत आने वाली पाँच उपभाषाएँ एवं उनकी बोलियाँ इस प्रकार हैबोलियाँ
उपभाषाएँपश्चिमी हिन्दीपूर्वीं हिन्दीराजस्थानी हिन्दी
बिहारी हिन्दीपहाड़ी हिन्दी
पश्चिमी हिन्दी
खड़ी बोली, हरियाणवी, ब्रजभाषा, बुन्देली, कन्नोजाअवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी
खड़ी बोली
मारवाड़ी, जयपुरी/ ढूँढाड़ी, मेवाती, मालवीभोजपुरी, मैथिली, मगहीगढ़वाली, कुमाऊँनी, नेपाली
पश्चिमी हिन्दी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। पश्चिमी हिन्दी कीप्रमुख बोलियाँ निम्न प्रकार है
इस बोली को 'हिन्दुस्तानी', 'सरहिन्दी', 'बोल -चाल की हिन्दुस्तानी खड़ीबोली आदि नाम दिए गए हैं। इसका दुसरा व सही नाम 'कौरवी है। यहवही प्रदेश है, जिसे पहले कुरु जनपद कहते थे।
कौरवी या खड़ी बोली रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, मेरठ,बुलन्दशहर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग, अम्बाला (पूर्वीं भाग)तथा पटियाला के पूर्वी भागों में बोली जाती है।
खड़ी बोली तथा उसके परिष्कृत रूप मानक हिन्दी में पर्याप्त समानताएँमिलती हैं।
14वीं शताब्दी में सर्वप्रथम अमीर खुसरो ने इस बोली का प्रयोग किया।16-17वीं शताब्दी तक हिन्दी साहित्य पर ब्रजभाषा व अवधी का आधिपत्यरहा, परन्तु कालान्तर में खड़ी बोली में हिन्दी साहित्य लिखा जाने लगा, नकेवल पद्य में अपित् गद्य में भी खड़ी बोली का प्रयोग हुआ।
खड़ी बोली के विकास के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में गद्य का भी जन्महुआ। सदल मिश्र, लल्लू लाल, सदासुख लाल आदि ने अपने गद्य में खुड़ीबोली का प्रयोग किया। अत: गद्य साहित्य के विविध रूपों में हिन्दी खड़ीबोली ने उल्लेखनीय विकास किया।
जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त ्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा आदि कवियों नेअपने काव्य में खड़ी बोली का ही प्रयोग किया।
जयशंकर प्रसाद रचित कामायनी खड़ी बोली का प्रसिद्ध महाकाव्य है।
खड़ी बोली में अत्कान्त पद्य में 'निराला जी का प्रमुख स्थान है। खड़ीबोली का प्रथम महाकाव्य 'हरिऔध रचित प्रिय प्रवास है।
खड़ी बोली की विशेषताएँ
खड़ी बोली आकार बहला बोली है। इसमें अधिकांशत: आकारान्त शब्दों काप्रयोग होता है; यथा- माता, पिता, हथौड़ा आदि।
* खड़ी बोली में बहुधा द्वित्व व्यंजनों का प्रयोग किया जाता है; जैसे - करत्ताबेट्टा, गाइ्डी आदि।
* खड़ी बोली में मूर्धन्य 'ल' का प्रयोग मिलता है, जिसका मानक हिन्दी मेंअभाव है; जैसे- बाल, जंगल आदि।
खड़ी बोली में मानक हिन्दी के न, भ के स्थान पर क्रमश: ण, व का प्रयोगहोता है; जैसे खाणा, जाणा, आणा, अबी (अभी), कबी (कभी) आदि।हरियाणवी
* हरियाणवी को 'हरियाणी' तथा 'बाँगरू' भी कहा जाता है। जॉर्ज ग्रियर्सन नेहरियाणवी को 'बाँगरू' नाम दिया था। हरियाणा प्रान्त (पानीपत, सोनीपत,जीन्द, पटियाला, हिसार, गड़गाँव आदि) तथा दिल्ली के देहात क्षेत्र मेंहरियाणवी बोली जाती है।
* हरियाणा प्रान्त में अहीर तथा जाटों की बाहल्यता है, इस कारण हरियाणी को"जाटू भाषा भी कहा जाता है। हरियाणवी में साहित्य का अभाव है।ब्रजभाषाা
ब्रजभाषा पश्चिमी हिन्दी की बोली है जिसका जन्म शौरसेनी अपध्रंश से हुआहै। यह मथुरा, व्न्दावन, आगरा, भरतपुर, धौलपुर, करौली, पश्चिमीग्वालियर, अलीगढ़, मैनपुरी, बदायूँ, बरेली आदि प्रदेशों में बोली जाती है।* ब्रजभाष अपने विस्तार के साथ मथ्रा मण्डल की भाषा के रूप में विकसितहुई।
ब्रजभाषा का आरम्भिक उल्लेख ऋा्वेद में है। इसके अतिरिक्तश्रीमद्भगवरद्पुराण व हरिवंश पुराण में भी इसका उल्लेख है। ब्रज काशाब्दिक अर्थ- गोस्थली (जहाँ गाएँ रहती हैं) होता है।
इसके बोलनें वालों की संख्या लगभग डेढ़ करोड़ होगी। ब्रजभाषा कासाहित्य अत्यन्त विशाल है।
सूरदास, नन्ददास, रसखान, घनानन्द, बिहारी, केशव, भारतेन्द्, जगन्नाथदासरत्नाकर आदि ब्रजभाषा के कवि हैं।
ब्रजभाषा की विशेषताएँ
ब्रजभाषा में ओकारान्त शब्दों की प्रधानता है। खड़ी बोली का 'ए' तथा 'ओब्रजभाषा में 'ऐ तथा 'औ' हो गया।
श, ष, स में से ब्रज में 'स की प्रधानता है। मानक हिन्दी की 'ण ध्वनि ब्रजमें 'न रूप में मिलती है; जैसे- गणेश - गनेस। इसी प्रकार 'ड तथा लध्वनियाँ ब्रज में 'र' ध्वनि के रूप में प्रयुक्त होती हैं; जैसे- थोड़ा-थोरो,बिजली-विजुरी आदि।
सर्वनामों की द्रष्टि से ब्रजभाषा में निम्न का प्रयोग होता है
उत्तम पुरुष मैं, हौं, मोरो, मोहिं मुझ, हमारो
मध्यम पुरुष तु, तेरो, तुज, तोहिं, तुम्हारोअन्य पुरुष इह, उह, इन, जोई, सोई
* ब्रजभाषा में बहुवचन में 'अन, 'अनि' प्रत्ययों का प्रयोग बहुतायत से होताहै; जैसे-छोरौ -छोरनि, लड़का- लरकानि आदि।
मानक हिन्दी में नाकारान्त क्रिया रूप ब्रज में नोकारान्त रूप में प्रयुक्त होतेहैं; जैसे- चलना-चलनो, दौड़ना- दौड़नो आदि।
बुन्देली
बुन्देला राजपूतों का प्रदेश होने के कारण जिस क्षेत्र का नाम बुन्देलखण्डपड़ा, उसकी बोली को बुन्देली कहते हैं। यह बोली उत्तर प्रदेश के झासी,उरई, जालौन, हमीरपुर और बाँदा (पश्चिमी भाग) तथा मध्य प्रदेश केओरछा, दतिया, चटखारी, सागर, टीकमगढ़, दमोह, नरसिंहपुर , छिन्दवाड़ा,सिवनी, होशंगाबाद और बालाघाट के अतिरिक्त ग्वालियर (पूर्वी भाग) मेंबोली जाती है।
बुन्देलखण्ड क्षेत्र के कवि तुलसीदास, केशवदास, बिहारी, मतिराम, पजनेश,श्रीपति, रसनिधि ठाकुर, पद्याकर, भट्ट आदि है। बुन्देली पर
अवधी का प्रभाव है। बन्देली में अधिकतर महाप्राण व्येजनाअल्पप्राणीकरण हो जाता है, जैसे -नहीं-नई, दही-दई, कहीं-कई, सूध- सूदाआद। इसमें शब्द के बीच से 'र' का लोप हो जाता है। बुन्देली औकारबहुला है; जैसे- तुम्हारा-तुमाओ, आओ, गाओ, बैठो आदि।
बुन्देली में कर्मकारक तथा सम्प्रदान कारक के रूप बदल जाते हैं, क्रमश:को का 'खो' तथा 'के लिए' का 'के लाने' हो जाता है। संख्यावाची शब्दोंमें भी परिवर्तन हो जाता है; जैसे- गैरा (ग्यारह), बेरा (बारह) आदि।
कन्नौजी
* यह बोली कन्नौज प्रदेश की भाषा है। कानपुर, हरदोई, शाहजहापुर,फर्रूखाबाद, इटावा, पीलीभीत आदि प्रदेशों में कन्नौजी बोली जाती है।कन्नौजी का विकास शौरसेनी प्राकृत की पांचाली प्राकृत से हुआ है। इसकारण आचार्य किशोरीदास बाजपेई जी ने इसे 'पांचाली' भी कहा है।कन्नौजी ओकारान्त प्रधान बोली है। कन्नौजी में संयुक्त स्वर की प्रधानता है;जैसे- और- अउर, कौन-कउन आदि।
इसकी ध्वनियों में बीच में 'ह का लोप हो जाता है। अन्त्य अल्पप्राण,महाप्राण में परिवर्तित हो जाता है; जैसे साथ -सात, हाथ-हात् आदि। येके स्थान पर 'ज का प्रयोग होता है; जैसे- यमुना-जमूना, यश-जस आदि।व के स्थान पर 'ब का प्रयोग होता है- वर-बर आदि।
कन्नौजी के स्वरों में मुख्यतः अनुनासिकीकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है;जैसे भौजाई - भउजाई, जुआ-जुऑं आदि।
पूर्वी हिन्दी
पूर्वीं हिन्दी का विकास अर्द्धमागधी प्राकृत से हुआ है। पूर्वीं हिन्दी की प्रमुखबोलियाँ निम्न हैं
अवधी
अवध की बोली अवरधी है। अवध प्रान्त के अन्तर्गत लखीमपुर खीरी,सीतापुर, हरदोई, लखनऊ, बाराबंकी, बहराइच, गोण्डा, फैजाबाद, उन्नाव,रायबरेली आदि जिले आते हैं। इनमें हरदोई जिले को छोड़कर अन्य सभीजिलों में अवधी बोली जाती है। ब्रजभाषा के पश्चात् अवधी ही साहित्य कीदृष्टि से समृद्ध रही है। अवधी को पूर्वीं तथा कोसली भी कहा जाता है।अवधी में पर्याप्त मात्रा में साहित्य सूजन हुआ है।
तुलसीदास (रामचरितमानस), जायसी (पद्मावत), कुतुबन (मृगावती),लालदास (जानकी रामायण), नाभादास (भक्तमाल), अग्रदास (ध्यानमंजरी), नूर मोहम्मद (इन्द्रावती), मंझन (मधुमालती) उसमान(चित्रावली) आदि अवधी के प्रमुख कवि व साहित्यकार रहे हैं।अवधी की विशेषताएँ
अवधी में ऐ' का उच्चारण 'अई और 'औ का उच्चारण 'अऊ रूप मेंहोता है; जैसे- कैसा- कइसा, पैसा-पइसा, औरत-अऊरत।
शब्दान्त में आने वाली ध्वनि 'व निश्चित रूप से उ में परिवर्तित होती है.जैसे- नाव-नाउ, भाव- भाउ, गाँव- गाउ।
अवधी में अकारण र का आगमन होना; जैसे पसन्द-परसन्दवियोग-विरोग।
अन्तस्थ व्यंजन 'य' और 'व' यदि किसी संयुक्त व्यंजन के साथ संयुक्त रूपसे जुड़े हो तो अवधी में 'य' के स्थान पर इआ, व के स्थान पर उआपरिवर्तन देखा जाता है; जैसे- ग्वाल गुआर, यार -सिआर, दुवार--दुआर,
यार- पियार।
शब्द के अरम्भ में और शब्द के मध्य में आने वाली ई'परिवर्तित होती है; जैसे- रइस-रहीस, इच्छा-हिच्छा, सइस-सहिस।कुछ ध्वनि परिवर्तन इस प्रकार हैं
क-ग
ल-र
बघेली
गुण-गुन
भक्त--भगत
भाल--भार
अवधी में अधिकांश शब्द वाकारान्त होते हैं; जैसे-जगदीसवा, घोड़नाआदि।
कारक रचना की दुष्टि से विभिन्न कारकों में जहाँ अवधी के अपने परसर्गहैं, वही कर्ता कारक के चिह्न 'ने' का विलोपन होता है; जैसे- उसनेखाया-उ खाइल।
ष-ख
बघेली की विशेषताएँ
व-ब
बघेलखण्ड की बोली 'बघेली' कहलाती है। बघेलखण्ड में बघेल
छत्तीसगढ़ी
राज्य था जिनकी राजधानी रीवा थी। अतः इसका केन्द्र रीवा है। इसके अतिरिक्तयह जबलपुर, माण्डला, हमीरपुर, मिज्जापुर , बॉदा, दमोह, नागौर, सतना,शहडोल, मैहर में बोली जाती है।
भाषा-भाखावर्ष--बर्षा
व का 'ब' हो जाता है; जैसे- आवा (अवधी)-आबा (बघेली)
आदिवासियों की शब्दावली की बहुलता।
मारवाड़ी
विशेषण के साथ 'हा' प्रत्यय का प्रयोग; जैसे-कमहा, सुन्दरहा आदि।
राजस्थानी हिन्दी
यह भाषा रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़, दुर्ग, नन्दगाँव, कांकेर, सरगुजा,में बोली जाती है। इस बोली में साहित्य न के बराबर है। इसमें शब्दों केमहाप्राणीकरण की प्रवृत्ति होती है; जैसे जन- झन आदि।
कोरिया
राजस्थानी हिन्दी की उत्पत्ति शौरसेनी आपभ्रंश से हुई है। राजस्थानी हिन्दी कीप्रमुख बोलियाँ निम्न प्रकार हैं।
राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र की बोली मारवाड़ी है। शुद्ध मारवाड़ी जोधपुरऔर उसके आस -पास बोली जाती है। कुछ मिश्रित रूप; जैसे- अजमेर,किशनगढ़, मेवाड़, सिरोही, पालनपुर व जैसलमेर में भी बोली जाती है।मारवाड़ी भाषा का प्राचीन नाम 'मरुभाषा है। मारवाड़ी राजस्थानी हिन्दी कीप्रमुख साहित्यिक भाषा रही है। मारवाड़ी की लगभग 14 उपबोलियाँ हैं।साहित्यिकि मारवाड़ी का शुद्ध रूप जोधपुर और उसके आस-पास के भागोंव शेखावटी क्षेत्र में मिलता है।
मारवाड़ी में करण तथा अपादान कारकों में सूं, ऊे तथा सम्बन्ध कारक में में,माई आदि कारक चिह्नों का प्रयोग होता है। सर्वनामों में मैं' के लिए म्हें, म्हआदि सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है।
जयपुरी/ ूँडाडी
हँढाड़ी को जयपुरी भी कहा जाता है। जयपुर के शेखावर्टी क्षेत्र को छोड़करसम्पूर्ण जयपुर में ढूंढाड़ी या ढूंढ़ाणी बोली जाती है। ढँढाड़ी के साहित्यिक रूप मेंब्रजभाषा, गुजराती और मारवाड़ी का प्रभाव परलक्षित होता है। ढढाड़ी में गहधऔर पह्य दोनों रूपों में साहित्य की रचना की गई है।
मेवाती
राजस्थान में जैहा मेओ जाति निवास करती है उस क्षेत्र को 'मेवात तथा वहा
की बोली को 'मेवाती' कहा गया। अलव- भरतपुर के उत्तर -पश्चिमी क्षेत्र तथा
गुड़गाँव क्षेत्र में मेवाती बोली जाती है। चरणदास की शिष्या दयाबाई व सहजोबाईने अधिकांशतः मेवाती में ही साहित्यिक रचनाएँ की हैं। प्रायः इसमें साहित्य काअभाव देखने को मिलता है।
मालवी
मध्य प्रदेश का वह क्षेत्र, जो दक्षिण-पूर्वी राजस्थान से जुड़ा है, मालवा कहाजाता है। इसमें रतलाम, भोपाल, ग्वालियर, नीमच, इन्दौर , चित्तड़ का पूर्वी क्षेत्र,प्रतापगढ़, उज्जैन आदि प्रदेश अते हैं। इन क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषामालवी' कहलाती है। मालवी में साहित्य का अभाव है।
बिहारी हिन्दी
बिहारी हिन्दी की उत्पत्ति मागधी प्राकृत से हुई है। इसकी प्रमुख बोलियांँनिम्नलिखित हैं
भोजपुरी
बिहार राज्य के आरा जिले के एक गाँव 'भोजपुर्' के नाम पर इस भाषा कानाम भोजपुरी पड़ा।
भोजपुर' क्षत्र को राजा भोज ने बसाया था। भोजपुरी ऐसी बोली है, जो उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, नेपाल, फिजी, मॉरीशस आदि क्षेत्रों में बोली जातीहै। उत्तर प्रदेश के बलिया, गोरखपुर, वाराणसी, आजमगढ़, गाजीपुर,चन्दली, महाराजगंज, जौनपुर, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बस्ती,फैजाबाद, बहराइच, गोण्डा, सिद्धार्थनगर, मिर्जापुर, मउ आदि जिलों में तथाबिहार के बक्सर, भोजपुर, पूर्वी - पश्चिम चम्पारण, गोपालगंज, रोहतास,सारण, सिवान, वैशाली, भभुआ आदि जिलों में भोजपुरी बोली जाती है।भोजपूरी भारत की सर्वाधिक बोली जाने वाली बोलियों में से एक है। सन्तकवि-कबीर, धरमदास, धरणीदास आदि पर भोजपुरी भाषा का प्रभाव रहा।'रामनाथ पाण्डेय' भोजप्री के प्रमुख साहित्यकार हैं। भोजप्री में स्त्रीलिंगसंज्ञाएँ ईकारान्त में बोली जाती हैं; जैसे- बहिनि, आगि आदि। भोजपुरी में 'र'का लोप हो जाता है; जैसे - लरिका-लइका आदि।
मैथिली
* मैथिली मगध के ऊपरी क्षेत्रों तथा नेपाल में बोली जाती है। दरभंगा.समस्तीपुर, शिवहर, मधुबनी, पूर्णिया, कटिहार, सीतामढ्ी, किशनगंज,जमशेदपुर, देवधर आदि क्षेत्ों में तथा नेपाल के आठ जिलों सरलाही, धन्षा,मोहतरी, सप्तरी, रॉतहट, मोरंग, सुनसरी तथा सिरहा में मैथिली बोली जातीहै। मैथिली भाषा एकमात्र वह बोली है, जिसे भारतीय संविधान की आठवींअनुसूची में शामिल किया गया। झारखण्ड राज्य में मैथिली को दसरीराजभाषा का दर्जा प्राप्त है।
विद्यापति, गोविन्द दास, चन्दा झा आदि मैथिली के प्रमुख साहित्यकार रहे हैं ।नागार्जुन (यात्री) हिन्दी के साथ-साथ मैथिली के भी महानतम् कवि थे। इन्हेंमैथिली में लिखी रचना 'पत्रहीन नग्न गाछ के लिए साहित्य अकादमीपुरस्कार मिला था।
मगही
मगध क्षेत्र की बोली भगही काही जाती है। इसके न्तर्गत गया, पटना,भागलपुर, हजारीबाग आदि क्षेत्र अते हैं। भोजपूरी और मणही में अत्थभधिकसमानतार्एं देखने को मिलती है।
जज प्रियर्सन ने पहाडी हिन्दी को मध्य पहाड़ी कहा है। पहाड़ी हिन्दी काविकास 'खस' प्राकृत से हुआ है। पहाड़ी हिन्दी की प्रमुख वलियाँ इसप्रकार हैं
गढ़वाली
यह बोली उत्तराखण्ड के गढवाल कषेत्र की बोली है। इसके अन्तर्गत टिहरीगढ़वाल, उत्तरकाशी, चमोली जिले शामिल हैं। इस बोली पर पंजाबी, ब्रज वराजस्थानी तथा कुछ सीमा तक वैशाली का प्रभाव रहा है। गढवाली मेंलोक- साहित्य प्रचुर मात्रा में रचा गया है।
कुमाऊँनी
कुमाऊँ का पुराना नाम कूमाचल था। इसके अन्तर्गत नैनीताल,पिथौसगढ़, अल्मोड़ा व रानीखेत जिले शामिल हैं, यहाँ यह भाषा बोली जातीहै। कमाऊंनी की 12 उपबोलियाँ हैं, जिनमें 'खस' प्रमुख उपबोली है।
नेपाली
यह बोली हिमाचल प्रदेश के शिमला, मण्डी, चम्पा, जौनसार, सिरमौर क्षेत्र मेंबोली जाती है।
हिन्दी के विविध रूप
हिन्दी के विविध रूपों में हिन्दी, उदू, दक्खिनी तथा हिन्दुस्तानी को शामिलकिया जाता है
हिन्दी
जिस रूप में आज हिन्दी भाषा विकसित है, वह खड़ी बोली का हीसाहित्यिक रूप है। खड़ी बोली का विकास 19वीं शताब्दी में हुआ था।अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम हिन्दी खड़ी बोली में रचना की। उन्होंने अपनीभाषा को 'हिन्दवी' कहा। उनके लिखे ये दोहे उनकी भाषा में खड़ी बोलीके दर्शन कराते हैं।
गोरी सोये सेज पर, मुख पर डाले केश।चल खुसरू घर अपने, रैन भई चहुँ देश।।खुसरो दरिया प्रेम का, सो उलटी वा की धार।जो उबरो सो ड्रब गया, जो डूबा हुवा पार।/रैी पढ़ी रसूल की, सो रंग मौला के हाथ।जिसके कपरे रंग दिए, जो धन- धन वाके भाग।/
मध्यकाल में ब्रजभाषा और अवधी साहित्यिक भाषाएँ थीं, लेकिनजनसम्पर्क के रूप में हिन्दी सशक्त भाषा के रूप में रही। कालान्तर मेंहिन्दी का परिनिष्ठित रूप देखने को मिला। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठीनिराला' आदि कवियों व साहित्यकारों ने गद्य- पद्य रूप में हिन्दी मेंसाहित्य-रचना करके इसे परिष्कृत करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
* ख्रिटिश राज में जनसमूह को सम्बोधित करने में तत्कालीन महान् नेताओं
जसे गाँधी , तिलक, दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी का प्रयोग किया।घर-धीरे हिन्दी का महत्व बढ़ता गया और वह राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। हिन्दी पर संस्कृत के अतिरिक्त अरवी, फारसी, अंग्रेजीआदि विदेशी भाषाओं का प्रभाव भी देखने को मिलता है। आज हिन्दी राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय रूप से भी अपना महत्त्व रखती है। फिजी,मोरीशस, कनाडा, गुआना, नेपाल आदि देशों में हिन्दी के विविध रूप देखने को मिलते हैं।
उर्दू
उर्दू फारसी लिपि में लिखी जाती हैं। उर्दु का जन्म खड़ी बोली से हुआ है।उर्दू कोई अलग भाषा न होकर खड़ी बोली से ही विकसित हुई है। यही कारण है कि विद्वान् हिन्दी व उर्दु को परस्पर बहनें मानते हैं। उर्दू मेंअरबी-फारसी शुब्दों की बहुलता रहती है तथा यह फारसी लिपि में लिखीजाती है। ब्रटिश उपनिवेशकाल के पूर्व यह हिन्दू व मुस्लिम दोनों की भाषा थी, परन्तु ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान अंग्रेज़ों ने हिन्दु व मुस्लम दोनों में फूट डालकर उर्दू को मुस्लिमों एवं हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा घोषित कर दिया। उर्दू की प्रारम्भिक पुस्तक- 'बानो बहार' (रचनाकाल 18वीं शती) है।
* हॉब्सन जॉब्सन शब्दकोष के अनुसार 'उर्द' शब्द भारत में बाबर के समय मेंआया, परन्तु वास्तव में यह शब्द बाबर के पृर्व ही तु्कों के साथ उर्द् रूप मेंइस देश में आ चुका था।
* उर्दू के प्रारम्भिक कवियों इब्राहिम आदिलशाह, मुहम्मद कुली कुतुबशाह,सुल्तान मुहम्मद कुतुबशाह का उदाहरण देकर रामधारी सिंह 'दिनकर' यहसिद्ध करते हैं कि उर्दू का जन्म दिल्ली और आगरा में नहीं, बल्कि दक्खिनीभारत में हुआ। उनकी मान्यता है कि दिल्ली और आगरा तो इस्लामी संस्कृतिके गढ़ थे और बाहर से आने वाले मुस्लिम इन्हीं केन्द्रों पर ठहरते थे।इसलिए यहाँ फारसी के श्रोता मिल जाते थे। उस कारण कवि या तो ब्रज याअवधी या शुद्ध फारसी में लिखते थे। धीरे- धीरे अरबी, फारसी और हिन्दीका मिश्रित प्रयोग होने लगा और उर्दू भाषा का जन्म हुआ।
उर्दू का आधार भले ही हिन्दी अथवा खड़ी बोली रहा है, परन्तुअरबी-फारसी तुर्की शब्दावली के आधिक्य ने उसे हिन्दी से भिन्न जमीन भीप्रदान की है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी सद्ृश नेताओं केप्रयास से यह भाषा शब्दावली की दृष्टि से हिन्दी के निकट अवश्य आई,परन्तु उससे पहले और बाद में भी इसमें क्लिष्ट अरबी-फारसी शब्दावली का प्रयोग बढ़ता रहा है। आज यह प्रयोग इस सीमा तक बढ़ गया है किपड़ोसी मुल्क पकिस्तान ने इसे अपनी राष्ट्रूभाषा घोषित किया हुआ है।
* भारत के संविधान में इसे स्वतन्त्र भाषा का स्थान दिया गया है। अन्य स्तरोंपर भी यह भाषा हिन्दी की तुलना में कुछ विशिष्टता लिए हुए है;जैसे-- इसमें नागरी के स्थान पर फारसी लिपि को स्वीकार किया गया है।उर्दू में 'क़','खं, 'र, 'ज़, 'फ़ पॉच छवियाँ मिलती हैं, जो हिन्दी में नहींहैं। इनका प्रयोग केवल उ्दू के जानकार हिन्दी भाषी ही करते हैं। साहित्यिकदृष्टि से भी उर्दू का विशिष्ट स्थान है।
द के लेखक व शायर.
* गालिब
साहिर लुधियानवी। राजिन्दर सिंह बेदी
जफर
फिराख गोरखपुरीमोहम्मद इकबाल
दक्खिनी
दक्खिनी शब्द का प्रयोग दक्षिण का निवासी' तथा 'दक्षिण की भाषा' इन दोअथों में किया जा सकता है। भारतीय साहित्य में दक्षिण पथ शब्द का
प्रयोग अनेक स्थानों पर मिलता है। भारत में सुस्लिमों के आने के बाददक्षिण पथ ही दक्खिन कहलाया एवं इस प्रदेश की भाषा दक्खिनी कहलादक्खिनी का प्रयोग बीजापुर, गोलकुण्डा, अहमदपुर बरार, मुम्बई तथा मध्यप्रदेश तक होता रहा है। इस भाषा के लिए 'दक्खिनी नाम का प्रयोग पटबार 17वीं शताब्दी में देखने में आता है।
दक्खिनी कोई स्वतन्त्र भाषा न होकर मूलतः 14वीं, 15वीं सदी की खटीबोली हिन्दी है। भारत अने पर सभी मुस्लिमों ने माध्यम भाषा खड़ी बोलীको ही स्वीकार किया। मूस्लिमों के साथ-साथ वहाँ रहने वाले हिन्दुओं ने ीइस बोली को स्वीकार किया और इस प्रकार दक्षिण में 'दक्खनी' प्रचलितहो गई। प्रसिद्ध इतिहासकार गार्सा द तासी दव्खिनी को हिन्दी का ही एकअन्य नाम स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार दक्षिण में प्रयुक्तहिन्दू-मुसलमानों की मिश्रित भाषा ही दक्खिनी है। ग्रियर्सन महोदय भीदक्खिनी को हिन्दुस्तानी का ही एक रूप मानते हैं। इसका प्रयोग मुख्य रूपसे दक्षिण के मुस्लिम करते हैं।
सुनीति कुमार चटर्जी इसे हिन्दुस्तानी तो नहीं, परन्तु उसकी सहोदर भाषास्वीकार करते हैं। रामविलास शर्मा दक्खिनी को खड़ी बोली का ही एकविशिष्ट रूप मानते हैं । डॉ. भोलानाथ तिवारी इसे प्रचीन खड़ी बोली मानतेहैं। मलिक मोहम्मद भी डॉ. तिवारी के मत से सहमत हैं। दक्खनी भाषा मेंखड़ी बोली के अतिरिक्त ब्रज, हरियाणी, मेवाती, पंजाबी तथा कुछ अवधीके भी रूप पाए जाते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि दक्िखनी इन सभीभाषाओं और बोलियों से प्रभावित है वरन् इन सभी बोलियों का विकास्एकसाथ हुआ।
दक्खिनी भाषा में गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में साहित्य की एप्त मार मेंरचना हुई है। 15वीं से 18वीं सदी में दक्खिनी को बट्भना वश तथा अन्यराजाओं का आश्रय प्राप्त होने के कारण इस भाषा में साहित्य लेखन कोकाफी बल मिला। दक्खनी का प्रारम्भिक साहित्यकार 'ख्वाजा बन्दानवाजगेसूदराज' को माना जाता है। इनकी रचना 'मिराज़ुल आशिकीन दक्िखिनीगदच्य का प्रथम उदाहरण है।
दक्खिनी के कुछ प्रमुरख साहित्यकार
*शाह मीराजी
*सैयद मुहम्मद हुसैनी
*निजामी
* शाह बुरहानुद्दीन
* अब्दुल्ला बेलूरी
*शेख असरफ
* मुहम्मद कुली कुतुबशाह
'दक्खिनी' दक्षिण की भाषा होने के कारण 'दक्खिनी' कहलाई। इसकी लिपिउर्द के समान फारसी लिपि है। इसे 'गुजरीं' भी कहते हैं, क्योंकि दक्खिनीका गुजरात में प्रयुक्त होने वाला रूप 'गूजरी भी कहा जाता है। इसमेंअरबी-फारसी के अतिरिक्त गुजराती शब्द भी मिलते हैं।
*दक्खिनी भाषा की विशेषताँ
*दक्खिनी भाषा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
*खड़ी बोली के सभी स्वर दक्खिनी में मिलते हैं।
*खड़ी बोली के सभी व्यंजनों का प्रयोग भी इस भाषा में मिलता है।
दक्खिनी म अल्पप्राण, महाप्राण, घोषत्व, अधोषत्व आदि विशेषताएँ पाईजाती हैं।
संयुक्त ख्यजनी के स्थान पर 'न' का प्रयोग होता है; जैसेचाँदनी चाननी।कर्ता के परसर्गे 'ने' और "नै' हैं। कर्म-कारक के परसर्गकू कू है।करण--ते, तें, थें हैं।
पुरुषवाचक सर्वनाम
उत्तम पुरुष
मध्यम पुरुष
अन्य पुरुष
संज्ञावाचक सर्वनाम
प्रश्नवाचक सर्वनाम
क्रिया रूप
वर्तमान है के लिएभूतकाल था के लिए
भविष्य के लिए
अव्यय
हिन्दुस्तानी
यंज हमन मेरे कृ हमारे, पो
तुमे, अपै
उनन
है (6), आट (8), वन्नीस (19)
की (क्या के लिए)
अछूं, अछें, अछे
ध्या, अथा, अथे
चलस्यू, चलमूँ, चलामी
यां, वां कां तां चौधिर, इधर, उधर, तद, कद ।
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हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग एक शैली के लिए होता रहा है। 17वीं शताब्दी मेंइस रूप में 'हिन्दुस्तानी का पहला प्रयोग 'स्वामी प्राणनाथ' में मिलता है।यूरोपीय यात्री , ईसाई पादरी और अग्रेज़ कालीन सरकारी कर्मचारी हिन्दी सेअधिक हिन्दुस्तानी शैली का प्रयोग करते थे। 1800 ई. तक यही स्थितिस्वीकार्य रही। 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई और वहांहिन्दुस्तानी विभाग की स्थापना की गई। फोर्ट विलियम कॉलेज के प्राचार्यजॉन गिलक्राइस्ट ने इसे ग्रामीण हिन्दी तथा उर्द दो रूपों में ग्रहण किया।फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी के नाम पर उर्दू पढ़ाई जाती थी।19वीं शताब्दी में यूरोपीय विद्वानों द्वारा लिखे गए सभी हिन्दुस्तानी कोश, उर्दूके ही कोश हैं। हेनरी यूल तथा बर्गेल कृत प्रसिद्ध कोश हॉब्सन-जॉब्सन' मेंभी हिन्दुस्तानी ज़बान को उर्दू ही कहा गया है। 17वीं शताब्दी में जबपुर्तगाली हिन्दुस्तान में व्यापार के लिए आए तो उन्होंने देश की भाषा देश केनाम 'इन्दोस्तान के आधार पर इन्दोस्तानी रखा। अंग्रेज़ों ने इसे हीहिन्दुस्तानी रूप में ग्रहण किया। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जीं ने भी इसका प्रयोग17वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही स्वीकार किया है। डॉ. भोलानाथ तिवारी इसे15वीं शताब्दी से पहले का स्वीकार करते हैं। बाबर की आत्मकथातुजुके-बाबरी में भी हिन्दुस्तानी शब्द का उल्लेख मिलता है।
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हिन्दुस्तानी के सबसे प्रबल समर्थक एवं प्रचारक महात्मा गांधी की मान्यताथी कि हिन्दुस्तानी वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू व मुसलमान बोलते हैंऔर जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है। वर्ष 1935 मेंमहात्मा गांधी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के नागपुर अधिवेशन के अवसर परहिन्दी को देश के नाना वर्णों और समुदायों को जोड़ने वाली अर्थात् एकताकी भाषा कहकर राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दिया। गांधी जी ने अपने भाषणों,पत्र-व्यवहार तथा लेखन में सर्वत्र इसी भाषा का प्रयोग किया। इसकेप्रचार-प्रसार हेतु 1938 ई. में सैयद महमूद, ताराचन्द, भगवान दास, जाकिरहुसेन, सैयद सुलेमान प्रदवी आदि विद्वानों ने भी हिन्दुस्तानी के आन्दोलनको आगे बढ़ाने में भरपूर सहयोग दिया। कांग्रेस का समस्त कार्यहिन्दुस्तानी' में ही होता था। सुभाषचन्द्र बोस ने इसे सार्वदेशिक भाषा कीसंज्ञा दी।
हिन्दी भाषा प्रयोग केविविध रूप
हिन्दी भाषा प्रयोग के विविध रूाप है। कही तो यह क्षेत्रीय भाषा के रूप में प्रयोगकी जाती है, तो कहीं परिष्कृत रूप में। राजभाषा, प्रशासनिक भाषा, सम्पर्क भाषाआदि के रूप में हिन्दी भाषा के मानक रूप का प्रयोग किया जाता हैं।हिन्दी भाषा प्रयोग के विविध रूप निम्नलिखित है
बोली
किसी क्षेत्र-विशेष में स्थानीय रूप से प्रयक्त होने वाली साधारण बोलचाल कीभाषा 'बोली कहलाती है। 'बोली' में साहित्य का अभाव होता है। लोक- साहित्यकी रचना 'बोली' में ही होती है। एक निश्चित बोली केवल अपने क्षेत्र तक हीसीमित होती है। बोली में देशज शब्दों का पर्य्ाप्त प्रभाव रहता है।
यदि आधुनिक आर्य भाषाओं में हिन्दी सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिष्ठित भाषाहै, तो इसकी बोलियाँ भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं। हिन्दी की बोलियाँविश्व की सभी भाषाओं से संख्या में बहुत अधिक हैं। संख्या में अधिक होने केपश्चात् भी इन बोलियों में पारस्परिक सम्बद्धता और साम्य देखने को मिलता है।सभी बोलियाँ एक -दूसरे की पूरक दिखाई देती हैं। इनके बीच में कोई विभाजकरेखा नहीं है। व्याकरण, शब्द, ध्वनि, प्रकृति आदि के दृष्टिकोण से सभी बोलियाँपरस्पर समानता रखती हैं। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ये सम्पूर्ण बोलियाँ अच्छी तरहसे एक-दूसरे के द्वारा समझी जाती हैं।
मध्यकाल में पश्चिमी हिन्दी की 'ब्रजभाषा' तथा पूर्वीं हिन्दी की 'अवधी' कोसाहित्यिक भाषाओं का दर्जा प्राप्त था। काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा ने हजारोंवर्षों तक शासन किया। अष्टछाप के कवियों में सूरदास, नन्ददास, कुम्भनदास,गोविन्ददास,छीतस्वामी आदि ने ब्रजभाषा को तत्कालीन साहित्यपरमानन्ददास,की प्रमुख भाषा के रूप में प्रस्तुत किया। कालान्तर में बिहारी, रसखान, भारतेन्दुहरिश्चन्द्र, नरोत्तमदास, जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' आदि कवियों ने ब्रजभाषा कोपरिपक्वता प्रदान की। अवध क्षेत्र की अवधी भाषा को मुख्यत: तुलसीदास जीऔर मलिक मुहम्मद जायसी ने एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक भाषा का रूप प्राप्तकरने में आपना अभूतपूर्व योगदान दिया। अन्य कवियों में ईश्वरदास, अग्रदास,रहीम, लालदास, उसमान आदि अवधी के महत्तवपूर्ण साहित्यकार रहे हैं ।खड़ी बोली ने भी पद्य साहित्य और गद्य साहित्य में अभूतपूर्व प्रगति की।भारतेन्दु युग से अब तक खड़ी बोली साहित्यिक रूप से अति समृद्ध भाषा रहीहै। जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित 'कामायनी' खड़ी बोली का प्रसिद्ध महाकाव्य है।सूर्यकान्त त्रपाठी निराला ने खड़ी बोली में अतुकान्त काव्य में अपना महत्त्वपूर्णविकासयोगदान दिया। गद्य साहित्य के विविध रूपों में भी खड़ी बोली ने बहुतकिया। हजारी प्रसाद द्विवेदी, महावीर प्रसाद द्धिवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकरप्रसाद, प्रेमचन्द आदि महान् साहित्यकारों ने गद्य की विभिन्न विधाओं में खड़ीबोली को समृद्ध कर दिया।
राजस्थानी हिन्दी की विभिन्न बोलियों में भी साहित्यिक रचनाएँ हुई। राजस्थानीहिन्दी की प्रमुख रचनाएँं हैं-बीसलदेव रासो (नरपति नाल्ह), ढोला मारू रा दूहावीर सतसई (वियोगी हरि) आदि। दादू, मीरा आदि सन्तों(कुशलराय वाचक),और भक्तों ने भी अपना साहित्य राजस्थानी में लिखा। सूर्यमल्ल मिश्रण,चन्दबरदाई, पृथ्वीराज राठौड़ प्राचीन राजस्थानी हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार रहे हैं।
पहाड़ी हिन्दी की गढ़वाली बोली में लोक साहित्य प्रचुर मात्रा में रचा गया है।विहारी हिन्दी की भोजपरी, मैथिली आदिोलियोँ भी साहित्यिक रूप से समृद्ध रही
हैं। विद्यापति को 'मैथिली का कोकिल' कहा जाता हैं।
निष्कर्षतः इतने विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हिन्दी बोलियों में जो साम्यदिखता है, वह दर्शाता है कि इन सभी बोलियों को चेतन बनाने वाली आत्मा एक ही
है, जिससे ये अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाए हुए हैं।
मानक भाषा
मानक भाषा, वह भाषा होती है, जिसका मानकीकरण किया गया हो। हिन्दीं काअनेक बोलियाँ व उपबोलियाँ हैं, जिनमें खड़ी बोली को मानक हिन्दी नाम दियागया है। इसी खड़ी बोली से हिन्दी में शिक्षा का प्रचार-प्रसार होता है। इस खबोली के अन्तर्गत अन्य क्षेत्रीय बोलियाँ समाविष्ट नहीं हैं।
सम्पूर्ण देश में भाषा में एकरूपता व उसे अनुशासित रखने के लिए मानक भाषा काआवश्यकता पड़ती है। मानक का अर्थ होता है - परिनिष्ठित, आदर्श या श्रेष्ठ। भाषाके जिस रूप का व्यवहार शिक्षा, प्रशासनिक का्यों, सामाजिक -सांस्कृतिक रूप सेउसमें उपस्थित विविध विषमताओं को दर करके उसमें साम्यता लाकर एकरूप मेंकिया जाता है, वही भाषा का मानक रूप होता है। किसी क्षेत्र की स्थानीय योऑँचलिक बोली का शब्द- भण्डार सीमित होता है तथा उसका कोई नियमितव्याकरण भी नहीं होता, जिसके कारण इसे अधिकारिक या व्यावहारिक भाषा कीमाध्यम नहीं बनाया जा सकता।
इसलिए ऐसी बोली विशिष्ट भौगोलिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक,सामाजिक आदि कारणों से अपना एक व्याकरणिक रूप विकसित कर लेती है,जोकि पत्राचार, शिक्षा, व्यापार, प्रशासन आदि में लिखित रूप में प्रयोग होने लगताहै। इस प्रकार वह बोली एक मानक भाषा बन जाती है। भाषा प्रयोग की द्ृष्टि सेयह बोली व्यापक हो जाती है और एक आदर्श, परिनिष्ठितता को प्राप्त कर लेती है।इसकी एक मानक शब्दावली का जन्म हो जाता है, जिससे यह मानक भाषा शुद्ध वपरिमार्जित हो जाती है।
भाषा का मानकीकरण एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और अत्यावश्यक प्रक्रिया है।उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय भाषा के स्तर पर चाबी' को अनेक नामों से पूरकारा जाताहै; जैसे-कुंजी, खोलनी, चाभी आदि, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि पूरे हिन्दीप्रदेश में 'चाबी' को खोलनी या कुंजी कहा जाए और सभी को समझ आ जाए।इसलिए इस शब्द के यदि एक मानक रूप 'चाबी' को स्वीकृत किया जाए तो पूराहिन्दी प्रदेश इसके प्रयोग को समझ जाएगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि भाषा कामानकीकरण एक अनिवार्य प्रक्रिया होती है। एक आदर्श या मानक भाषा अपने आपमें जीवन्त, स्वायत्त और ऐतिहासिक होती है।
राजभाषा, राष्ट्रभाषा तथा हिन्दी कीसंवैधानिक स्थिति
संविधान द्वारा स्वीकृत सरकारी कामकाज की भाषा राजभाषा कहलाती है। राजभाषाका प्रावधान संविधान की धारा 343 से 351 के अनुच्छेदों में वर्णित है। अनुच्छेद৪43 में संघ की राजभाषा के रूप में हिन्दी व देवनागरी को लिपि के रूप मेंमान्यता मिली। भारतीय संविधान ने 14 सितम्बर, 1949 को हिन्दी को मान्यता दी।इसी कारण 14 सितम्बर को प्रति वर्ष हिन्दी दिवस मनाया जाता है। अनुच्छेद 120के अनुसार संसद का काये हिन्दी या अंग्रेज़ी में होगा। अनुच्छेद 210 के अनमारप्रान्तों के राज्य विधानमण्डलों का कारय्य राज्य की राजभाषा में या हिन्दी/ अंग्रेजी मेंहोगा।
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राष्ट्रपति ने एक राजभाषा आयोग की नियुक्ति की, जिसके 2।सदस्य थे। इस आयोग के कुछमुख्य सुझाव निम्न हैं।
किन्हीं मामलों में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्यक होते हुए भीसार्वजनिक क्षेत्र में विदेशी भाषा का व्यवहार उचित नहीं है।हिन्दी सर्वधिक बोली व समझी जाने वाली भाषा है, यही सम्पूर्णभारत का एक माध्यम है।
चौदह वर्ष की उम्न तक भारत के प्रत्येक छात्र को हिन्दी का ज्ञानकरा देना चाहिए।
हिन्दी क्षेत्र के विद्यार्थियों को एक और भाषा विशेषतः दक्षिण भारतकी भाषा, अनिवार्य रूप से सीखनी चाहिए।
भारत सरकार के प्रकाशन अधिक-से-अधिक हिन्दी में हो।संसद व विधानमण्डलों में हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं काव्यवहार होना चाहिए।
प्रतियोगी परीक्षाओं में हिन्दी का एक अनिवार्य प्रश्न-पत्र रखा जाए।भारत की भाषाओं में निकटता लाने की व्यवस्था करनी चाहिए।
अनुच्छेद 34{ के अनुसार, प्रारम्भ से 5 वर्ष की समाप्ति पर राष्ट्रपति एकआयोग गठित करेगा, जो निश्चित की जाने वाली एक प्रक्रिया के अनुसारराष्ट्रपति को सिफारिश करेगा कि किन शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी काप्रयोग अधिकाधिक किया जा सकता है। साथ ही अंग्रेज़ी, न्यायालयों मेंप्रयुक्त होने वाली भाषा के स्वरूप, विभिन्न प्रयोजनों के लिए अंकों का रूपतथा संघ की राजभाषा तथा राज्य के बीच या एक-दुसरे राज्य के बीचभाषा सम्बन्धी सुझाव देगा।
अनुच्छेद 345 के अनुसार, किसी राज्य का विधानमण्डल, विधि द्वारा उसराज्य में प्रयुक्त होने वाली या किन्हीं अन्य भाषाओं को या हिन्दी कोशासकीय प्रयोजनों के लिए स्वीकार करेगा और ऐसा नहीं हो सकने कीस्थिति में अंग्रेज़ी का प्रयोग यथावत् रहेगा।
अनुच्छेद 346 के अनुसार, संघ द्वारा प्राधिकृत भाषा एक राज्य और दूसरेराज्य के बीच में तथा किसी राज्य और संघ की सरकार के बीच पत्र आदिकी राजभाषा होगी। यदि कोई राज्य परस्पर हिन्दी भाषा को स्वीकार करेगातो उस भाषा को प्रयोग किया जा सकेगा।
अनुच्छेद 347 के अनुसार, यदि किसी राज्य की जनसंख्या का एक बड़ाभाग यह चाहता हो कि उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को उस राज्य मेंमान्यता दी जाए और इस निमित्त से मॉग की जाए, तो राष्ट्रपति यह निर्देश देसकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में सर्वत्र या उसके किसी भाग मेंऐसे प्रयोजन के लिए जो वह विनिर्दिष्ट करे, शासकीय मान्यता दी जाए।अनुच्छेद 348 के अनुसार, जब तक संसद विधि द्वारा उपबन्ध न करे, तबतक उच्चतम न्यायालय तथा प्रत्येक उच्च न्यायालय में सब तरह कीकार्यवाही औग्रेज़ी भाषा में होगी। संसद के प्रत्येक सदन या राज्य केविधानमण्डल के किसी सदन में विधेयकों, अधिनियमों, प्रस्तावों, आदेशों,नियमों, विनियमों आदि की भाषा अग्रेज़ी होगी।
अनुच्छेद 349 के अनुसार, राज्य भाषा से सम्बन्धित संसद यदि कोईविघेयक या संशोधन पुनः स्थापित या प्रस्तावित करना चाहे तो राष्ट्रपति कीपूर्व मंजूरी लेनी पड़ेगी और राष्ट्रपति आयोग की सिफारिशों पर और उनसिफारिशों की गठित रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् ही अपनी मंजूरीदेगा, अन्यथा नहीं।
भनच्छेद श50 के अनुसार, प्रत्येक व्यकिति किसी शिकायत को दूर करने के लिए
संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को यथ्थासि्थति संघ में या राज्य
पयोग होने वाली किसी भाषा में अध्यावेदन देने का अधिकारी होगा।
अनुच्छेद 51 में सरकार के उन कर्त्तव्यों एवं दायित्वों का उल्लेख किया गया है
जिनका पालन हिन्दी के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए उसे करना है। आठवींहेलुगू, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, मलयालम, संस्कृत्, सिन्धी, हिन्दी, नेपाली,अनुसूची की भाषाएँ असमिया, उड़िया, उर्दूकन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल,সकणी, मणिपुरी, बोडो, सन्थाली, डोगरी, मैथिली 22 भाषाएँ) हैं।
92वाँ संशोधन अधिनियम 2008 द्वारा वर्ष 2004 में चार भाषाएँ बोडो,सन्थाली, डोगरी, मैथिली जोड़ी गई। 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हो
या और उसमें यह व्यवस्था की गई कि हिन्दी को 1965 तक राजभाषा के पेदर आसीन कर दियां जाएगा। इसके बाद राष्टपति राजभाषा आयोग, संसद औरइरकार ने आदेश सुझाव अधिनियम अनुदेश और नियम निर्धारित किए, जिनकेসरा राजभाषा हिन्दी के प्रयोग को सूनिश्चित किया गया।
राजभाषा अधिनियम 1976
इस अधिनियम के द्वारा हिन्दी का अधिक -से- अधिक प्रयोग करने के लिए कुछपभावी कदम उठाए गए हैं, जो निम्न प्रकार है।
भारत के राज्यों को ४ वर्गों में बाँटा गया है
क वर्ग के क्षेत्र उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हिमाचल प्रदेश,हरियाणा एवं दिल्ली। ये सभी हिन्दी भाषी क्षेत्र हैं।
ख वर्ग के क्षेत्र पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, केन्द्रशासित- चण्डीगढ़ तथाअण्डमान निकोबार।
ग वर्ग के क्षेत्र शेष सभी राज्य एवं संघशासित क्षेत्र।
केन्द्रीय कार्यालयों से 'क श्रेणी के राज्यों को भेजे जाने वाले पत्र हिन्दी मेंदेवनागरी लिपि में भेजे जाँगे।
'खं श्रेणी के राज्यों से पत्र-व्यवहार हिन्दी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में कियाजा सकता है। केन्द्रीय कार्यालयों में प्रेषित हिन्दी पत्रों का उत्तर भी हिन्दी में हीदिया जाएगा।
केन्द्र सरकार के कार्यालयों में सभी पत्र, रजिस्टर हिन्दी व अंग्रेज़ी दोनोंभाषाओं में होंगे। केन्द्र सरकार के कर्मचारी हिन्दी या अंग्रेज़ी में ट्िप्पणी लिखसकेंगे।
कोई भी व्यक्ति आवेदन या अपील हिन्दी या अंग्रेज़ी में दे सकता है। यदिआवेदन या अपील हिन्दी में हो या उस पर हस्ताक्षर हिन्दी में हैं तब उसकाउत्तर हिन्दी में देना अनिवार्य है।
जहाँ 80% से अधिक कर्मचारी हिन्दी में कार्य करते हों वहाँ टिप्पणी, प्रारूपइत्यादि का कार्य हिन्दी में किया जा सकेगा।
वर्तमान में हिन्दी विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है, फिर भीभारत में यह उपेक्षित रही है। आज भी सरकारी कामकाज अंग्रेज़ी में ही होता है।इसका मुख्य कारण राजनीतिक इच्छा शक्ति का न होना है। यदि हमारी सरकारअदम्य इच्छा शक्ति रखे तो वह दिन दूर नहीं जब यह भाषा अन्तराष्ट्रीय स्तर परব্तীय स्थान पर आ जाएगी। हिन्दी भाषा आज भी उपेक्षा का शिकार है। 1815. में जर्मनी के स्वतन्त्र होने पर बिस्मार्क ने आदेश दिया था कि एक वर्ष केभातर सभी कामकाज जर्मन भाषा में होगे, जो नहीं करेंगे उन्हें नौकरी से बख्खास्त
कर दिया जाएगा। एक वर्ष के भीतर ही जर्मन भाषा राष्ट्रभाषा बन गई, परन्तु
भरत में अग्रेज़ी के भक्तों के कारण यह पूर्णत: राजभाषा नहीं बन पाई है। अंग्रेज़ी
माध्यम से शिक्षित लोग अंगरेज़ी में व्यवहार करने को गर्व समझते हैं। वे गांधीजी की बातों को भूल जाते हैं।
हिन्दी वर्णमाला में कल वर्ण अग्रेज़ी की अपेक्षा दो गने तथा टाइपराइटर परहिन्दी टाइपिग कठिन होने के कारण भी अंग्रेज़ी को अधिक महत्तव दिया जाताहै। विदेशों में पर्यटन या उच्च शिक्षा के लिए जाने वाले लोग अंग्रेजी प्रशिक्षणलेते हैं। वे विदेश जाकर हिन्दी में व्यवहार न कर अंग्रेज़ी में बातचीत करते हैं।भारत में न्यायालयों का कार्य भी अंग्रेज़ी में होने के कारण वकीलों, न्यायाधीशोंको अंग्रेज़ी में ही व्यवहार करना पड़ता है जिससे औंग्रेज़ी के प्रसार को बलमिलता है तथा हिन्दी उपेक्षित होती है। उपर्यक्त सभी समस्याएँ हिन्दी कोपूर्णतः राजभाषा बनने में रुकावटें उत्पन्न करती रही हैं।
सम्पर्क भाषा
सम्पर्क भाषा वह भाषा है जो हमें अन्य लोगों के सम्पर्क में लाए। डॉ. भोलानाथतिवारी के अनुसार, वर्तमान में अंग्रेज़ी सम्पर्क भाषा का कार्य कर रही है,क्योंकि यदि हमें तमिल भाषा-भाषी व्यक्ति से सम्पर्क साधना है तो तमिलआनी चाहिए अन्यथा अंग्रेज़ी। प्रत्येक जाति या देश की एक सम्पर्क भाषा होनीचाहिए। एक ऐसी भाषा जो उस देश में कहीं चले जाने पर काम आए अर्थात्जिसका व्यवहार देशव्यापी हो। भारत में हिन्दी सम्पर्क भाषा काफी लम्बे समयसे रही है। दक्षिण से आकर मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य और अन्यआचार्य सम्पूर्ण भारत में इसी भाषा के माध्यम से अपने धार्मिक विचारों काप्रचार करते रहे।
दक्षिण के तीर्थो-तिरुपति, मदुरे, कन्याकुमारी और रामेश्वरम् तक उत्तर भारतके लोग जाते थे तो हिन्दी का उपयोग होता था। वर्तमान में रेडियो, टी. वी.,सिनेमा, समाचार-पत्र-पत्रिकाएँ हिन्दी का बेहतर प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।सभी प्रदेशों के लोग हिन्दी प्रदेशों में आकर सरकारी/ प्राइवेट नौकरी करते हैं।तथा वे शीघ्र ही हिन्दी का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार हिन्दी का सम्पर्कभाषा रूप उज्ज्वल हो रहा है।
संचार माध्यम और हिन्दी
रॉबर्ट एण्डरसन के अनुसार "वाणी, लेखन या संकेितों द्वारा विचारों, अभिमतोंया सूचना का विविध विनिमय करना संचार कहलाता है। संचार एकअर्थपूर्ण सन्देश है, जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से सूचना काआदान-प्रदान करता है। संचार से सूचनाओं का अआदान-प्रदान होने केसाथ-साथ हमारा जनसम्पर्क बढ़ता है। हम एक -दूसरे को प्रभावित करते हैं,सूचनाएँ अधिक होने पर व्यक्ति अत्यधिक ज्ञानवान व शक्तिशाली होता हैऔर वह अधिक-से-अधिक उच्च प्रस्थिति प्रप्त करता है। संचार के माध्यमहैं-- रेडियो, टीवी, इण्टरनेट, फैक्स, समाचार-पत्र, पुस्तकें, पत्रिकाएँ, पोस्टर,पैम्फलेट, वीडियो- ऑडियो, कैसेट, डीवीडी, सीडी, उपग्रह संचार आदि।इण्टरनेट का उपयोग आज प्रायः जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हो रहा है। इसतकनीक का व्यापक उपयोग इलेक्ट्रॉनिक मेल के रूप में होता है। कम्प्यूटरोंपर सन्देश टाइप करके इसे भेजने का कार्य इसके द्वारा ही सम्पन्न होता है।इण्टरनेट सेवा का सर्वाधिक लाभ व्यापारियों, उद्यमियों, चिकित्सकों, शिक्षकोंतथा वैज्ञानिक संस्थाओं को हुआ है। उद्यमियों और व्यापारियों को घर बैठे हीअन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार के रुख का पता चल जाता है। संचार के क्षेत्र मेंअत्याधुनिक संचार प्रणालियों का प्रयोग होने लगा है। सूचना
प्रयोग से सूचना और सन्देश कम समय में अत्यधिक लोगों तक पहुँचाए जासकते हैं। आधुनिक संचार प्रणाली की उपयोगिता सरकारी प्रशासन से लेकरकम्पनी प्रबन्धन, विपणन, बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, घरेलू ऑकड़ों के प्रोसेसिंगआदि तक फैली हुई है।
भारत अन्तरिक्ष विज्ञान तथा उपग्रह
उपलब्धियोाँ प्राप्त करते हुए आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। इनसेट
उपमहीं की शৃखला भारत के लिए मील की पत्थर सिद्ध हुई है। इसने दशामें आधुनिकतम सूचना प्ौद्योगिकी का विकास करने में मदद पहुँचाई हैं।आज लोग घर बैठे-बैठे अपने टीवी पर हवाई जहाज अथवा ट्रेन में अपनआरक्षण की अन्तिम स्थिति की सहजता से जानकारी प्राप्त कर सकत है।किसी भी देश की घटना की जानकारी चन्द मिनटों में प्राप्त हो जाती है।टीवी, रेडियो, इण्टरनेट आदि पर हिन्दी का बहृत प्रयोग हो रहां है। यहिन्दी ही है जिसके माध्यम से दूर दराज ग्रामीण क्षत्रों में सूचनाएं पहुचाईजाती हैं। विज्ञापन भी हिन्दी में ही दिखाए जाते हैं। संचार माध्यमों मेंहिन्दी का इतना अधिक प्रयोग हुआ है जिससे हिन्दी का भविष्य उज्ज्वलबना है। हिन्दी भाषी फिल्में (बॉलीवृड) भी हिन्दी का प्रचार -प्रसार करनमें सहायक सिद्ध हुई हैं।
कम्प्यूटर और हिन्दी
आज का युग प्रोद्योगिकी, सूचना तथा संचार का युग है। सूचिनाप्रौद्योगिकी, तकनीकी उपकरणों के माध्यम से सूचनाओं का संकलन तथासम्प्रेषण करता है। सूचना प्रौद्योगिकी में कम्प्यूटर का महत्व अवर्णनीयहै। आज के युग में कम्प्यूटर के द्वारा सूचना प्रौ्योगिकी के क्षेत्र में जो नईक्रान्ति हुई है, वह है- यान्त्रिकी और कम्प्यूटर की नई भाषाई मॉगों कोपूरा करना।
इन नई भाषाओं में हिन्दी का भी आपना विशेष महत्त्व है। हिन्दी विश्व कीतीसरी सबसे बड़ी भाषा है। हिन्दी की शब्द -सम्पदा का नित विस्तार होनेसे कम्प्यूटर और हिन्दी एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं। धीरे- धीरे अन्यदेशों में हिन्दी के पठन-पाठन और प्रचार-प्रसार में तेजी से वृद्धि हुई है।दूर संचार के माध्यमों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपना महत्त्वपूर्णयोगदान दिया है। चूँकि हिन्दी भाषा का व्याकरण वैज्ञानिक है, इसलिएदेवनागरी लिपि कम्प्यूटर के लिए अनुकूल है। कम्प्यूटर युग में हिन्दी केप्रयोग की सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए इलेक्ट्रॉनिक विभाग नेभारतीय भाषाओं के लिए तकनीकी विकास के अन्तर्गत विभिन्नपरियोजनाओं को शुरू किया है।
आज विण्डोज प्लेटफार्म में कार्य करने वाले हिन्दी के अनेक सॉफ्टवेयरबाज़ार में उपललब्ध हैं; जैसे सी डैक, लीप ऑफिस, अक्षर फॉर विण्डोजआदि हिन्दी भाषा में वेब पेज विकसित करने के लिए प्लग इन पैकेटतै्यार किया गया है, जिससे कोई भी व्यक्ति या संस्था अपना वेब पेजहिन्दी में ग्रकाशित कर सकत हैं।
कम्प्यूटर ए्वं इण्टरनेट के परस्पर सहयोग से हिन्दी भाषा का प्रसार तीब्रगति से होने की सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं। माइक्रोसॉफ्ट, रेडिफ, गूगल, याहूआदि विदेशी कम्पनियाँ अपनी वेबसाइट पर हिन्दी भाषा को स्थान दे रहीहैं। इण्टरनेट सेवा के अन्तर्गत ई मेल, वॉइस मेल आदि के कारण हिन्दीभाषा के विकास व सम्प्रेषण की सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं। हिन्दी वर्ड नेटपर हिन्दी शब्दों के एक विशाल भण्डार को विकसित किया गया है।निष्कर्षत: हिन्दी और कम्प्यूटर को जोड़ने के काफी प्रयास किए जा रहेहैं, परन्तु अभी भी हिन्दी तकनीकी के दृष्टिकोण से पू्णरूपेण विकसितनहीं है। अत: इस क्षेत्र में अभी युद्ध स्तर पर कार्य करने की आवश्यकताहै, जिससे हिन्दी के प्रचार- प्रसार में वैश्विक रूप से महत्त्वपूर्ण वृद्धि कीजा सके।
देवनागरी लिपि
प्रत्येक भाषा की अपनी एक लिपि होती है, जिसमें उस भाषा को लिखा जाता
आधार लिखि्त संकेत होते हैं। लिपि द्ृश्य व दुष्टिगोचर होती है। हिन्दी की लिपिदेवनागरी', अयेज़ी की रोमन', उर्द् की 'फारसी तथा पंजाबी, की गुरुमुखी' है।
भारत की प्रचीन लिपियों में सिन्धुू घाटी की लिपि, खरोष्टठी लिपि और ्ाहीप्रसिद्ध हैं। सिन्धू घाटी की लिपि चित्राक्षर तथा कुछ ध्वन्याक्षर थी। देवनागरी लिति,आविष्कार ब्राह्मी लिपि से हुआ।
देवनागरी लिपि का सर्वप्रथ्म प्रयोग गुजरात के राजा जयभट्ट के एक शिलालेख
हुआ है। यह लिपि हिन्दी प्रदेश के अतिरिक्त महाराष्ट्र व नेपाल में प्रचलित है। गुजरात
में सर्वप्रथम प्रचलित होने से वहाँ के पण्डित वर्ग अरथात् भागर ब्राह्मणों के नाम से
गया। देवभाषा संस्कृत में इसका प्रयोग होने से इसके साथ 'देव' शब्द जुड़
गया। देवताओं की उपासना के लिए जो संकेत बनाए जाते थे, उन्हें देवनगर कहने हवे संकेत लिपि के समान थे वहीं से इसे देवनागरी कहा जाने लगा।
सर्वप्रथम महादेव गोविन्द्र रानाड़े ने लिपि सुधार समिति का गठन किया। काकाकालेलकर ने 'अ' की बारहखुड़ी का सुझाव दिया तथा स्वर ध्वनियों की संख्या कोकम कर दिया गया; जैसे- अ, आ, अि, अ, अु, अू, अ, औं, ओो, औ। डॉश्यामसुन्दर दास ने पंचमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग करने का सुझाव दिया।जैसे हिन्दी--हिंदी, कण्ठ - कंठ।
श्रीनिवास का सुझाव था कि महाप्राण ध्वनियों के स्थान पर अल्पप्राण ध्वनियाँ शामिलकर उनके नीचे कोई चिह्न लगाकर प्रयोग किया जाए। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग(5 अक्टूबर, 1941) ने लिपि सुधार हेतु एक बैठक की, जिस्समं मात्राओं को उच्चारणक्रम में लगाने तथा छोटी इ की मात्रा को व्यंजन के आगे लगाने का सुझाव पेशकिया। वर्ष 1947 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित समिति की अध्यक्षता नरेन्द्र देव नेकी, जिसमें निम्न सुझाव पेश किए गए
"अ' की बारहखड़ी भ्रामक है।
मात्राएँ यथास्थान रहे, परन्तु उन्हें थोड़ा दाहिनी ओर लिखा जाए।
अनुस्वार व पंचमाक्षर के स्थान पर बिन्दी () से काम चलाया जाए।
दो तरीकों से लिखे जाने वाले अक्षरों में निम्न अक्षरों को स्वीकार किया जाए।अ, झ, ध, भ, ल
संयुक्त वरणों क्ष, त्र, ज्ञ, श्र को वण्णमाला में स्थान दिया जाए।
उपरोक्त सुझावों में कुछ परिवर्तन कर इन्हें स्वीकार कर लिया गया है। समय- समयपर इसमें सुधार होते रहे हैं। फारसी की क़, ख़, ग़, ज़, फ ध्वनियाँ भी शामिल करली गई हैं तथा कुछ अंग्रेज़ी के शब्दों को भी शामिल किया गया है।
देवनागरी लिपि की विशेषताएँ
देवनागरी लिपि की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
देवनागरी लिपि पर प्रायः दोषारोपण होता रहा है कि इसमें वर्णों की संख्या अधिकहै, परन्तु वास्तविकता तो यह है कि यहाँ वर्णमाला का वर्गीकरण अत्यन्त वैज्ञानिकहै। इसके वर्ण सभी ध्वनियों को प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। पुरी वर्णमाला पहलेस्वर, फिर व्यंजन में वर्गीकृत है। स्वरों का वर्गीकरण भी एक स्वर वर्ण के पश्चात्दीर्ष वर्ण निश्चित है;
जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ अं अ
व्यंजन वर्णों का वर्गीकरण कण्ठ्य, तालव्य, मूर्धन्य, दन्त्य, ओष्ठ्य, अन्तःस्थ,ऊष्म, संयुक्त व्यंजन व द्वगुण व्यंजनों के रूप में वर्गीकृत है। पुनः व्यंजनों कोअल्पप्राण, महाप्राण, अघोष व सघोष में वर्गीकृत किया गया है। ऐसी विशेषताकिसी अन्य लिपि में नहीं पाई जाती।
स्वर नयों के उच्वारण में किसी
परन्तु ल्यअ के उस्चारण में अ्य ज्वनि की सहायता लेनी पड़त है।देवनागरी लिपि अक्षरात्क है। यह िशेषता अ्य लिपिया मं नही पाई जाता।इस लिप में शब्दों को लिखने के क में व और ्जन वर्ण अलग
जैसे कमल, कलम
अक्षरात्मक लिपि में वर्ण के ऊपर ीचे, दाएँ बाएँ कहीं भी मात्राओं काप्रयोग हो सकता है, परन्तु उच्चारण पहले वर्ण का होगा और उसके पश्चात्भत्राएँ उच्तचारित होगी; जैसे कोमल, दोमट, कुम्हार
लिखे जाते, चल्कि संयुक्त होकर पूर्ण अक्षर का निर्माण करते हैं;
अक्षरात्मक लिपि अक्षर प्रयोग के कारण कम स्थान घेरती है, जबकिवर्णात्मक लिपि वणों के पहले प्रयोग के कारण समरय,
दृष्टिकोणों से उपयुक्त नहीं है;
जैसे
जैसे
राम
कृष्ण
जैसे
सम्भव
देवनागरी लिपि में सभी ध्वनियों को अंकित करने की क्षमता है, परन्तु रीमनलिपि में ऐसा नहीं है;
RAMA
KRISHNA
SAMBHVA
ण, न के लिए N अक्षर
द, ड के लिए D अक्षर
देवनागरी लिपि में प्रत्येक ध्वनि के लिए एक निश्चित वर्ण है तथा प्रत्येक वर्णसे एक निश्चित ध्वनि भी निकलती है। ऊष्म व्यंजन श, प, स को लेकर संजगरहे तो अन्तर स्पष्ट है कि तालव्य 'श', मर्धन्य 'घ' व दन्त्य 'स' का प्रयोगअलग-अिलग है।
'र ध्वनि के लिए चार वर्ण प्रतीक एक ही वर्ण के चार कोणीय परिवर्तन मात्रहैं; जैसे- राम, कृति, कर्म, त्रिशूल।
Cake, Cat, Car, Bat.
C से 'क, A से 'अ' तथा आ, ए तीनों ध्वनियाँ निकलती हैं;
देवनागरी लिपि में प्रत्येक वर्ण के लिए निश्चित उच्चारण है, परन्तु रोमनलिपि में एक ही वर्ण अलग-अलग शब्दों के साथ अलग-अलग उच्चारणदेता है;
Call--कॉल में C 'क' का उच्चारण देती है।City-सिटी में C 'स' का उच्चारण देती है।
Knife में K मूकवर्णHaemorrhage
जैसे- Kmowledge में K मूकवर्ण, w व D भी मूकवर्ण
देव
देवनागरी लिपि में मूकवर्ण (साइलेण्ट लेटर) जैसी समस्या नहीं है, परन्तुरोमन लिपि में ऐसी समस्या है। रोमन लिपि में शब्द लिखे कुछ और जाते हैं।तथा उच्चारित कुछ और होते हैं;
E, 0, H HhqUj
ferfy
परन
* देवनागरी लिपि के सभी वर्णों को लिखना आसान है। देवनागरी लिपि के वर्णोंको लिखने के लिए एक पड़ी रेखा, एक खड़ी रेखा और एक अर्द्वृत्त कासहारा ही काफी होता है।
देवनागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है। शिरोरेखा के कारण भी देवनागरीलिपि की वैज्ञानिकता स्पष्ट होती है, क्योंकि इसके कारण वर्णों व शब्दों केबीच अन्तर किया जा सकता है।
देवनागरी लिपि का मानकीकरण
देवनागरी लिपि विश्व की अन्य लिपियों की तुलना में वैज्ञानिक है किसी भीलिपि के आदर्श होने के लिए निम्नलिरिखत शर्ते होनी अनिवार्य हैं
* वह लिपि दुनिया की किसी भी भाषा को अन्तरित करने की क्षमतारखती हो।
प्रत्येक ध्वनि के लिए स्वतन्त्र वर्ण प्रतीक हो।
* किसी वर्ण प्रतीक से एक से अधिक ध्वनि उच्चारित न हो।
* शब्दों को लेकर लिपि अर्थभेद न हो।
* उस लिपि में भूमण्डल की लिपि होने की अहता हो।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर देवनागरी लिपि निश्चित तौर पर वैज्ञानिक है,परन्तु कुछ समस्याओं के कारण यह मानकीकरण की दिशा में उलझी हुई है।इसकी मानकता के लिए कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं
* शिरोरेखा के प्रयोग को अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे वर्णों के बीच भेदकिया जा सकेगा। शिरोरेखा के अभाव में ध-घ, ख-व, र-व, में- भ काअन्तर स्पष्ट नहीं हो पाता।
ध्वनियों के उच्चारण में एकरूपता अति आावश्यक है। इस लिपि के वर्णोंकी द्विरूपता को समाप्त कर देना चाहिए;
जैसे- अ श्र, रा, ण, झ फ, ल क्त, त त्र आदि।
संयुक्त वर्णों का प्रयोग संयोग, लेखन व उच्चारण लाघवता व तीव्रता कोदर्शाता है। इसे भी बनाए रखा जाए; जैसे- क्ष, त्र, ज्ञ।
वर्णों को संयुक्त करने की प्रक्रिया चाहे आस-पास हो या ऊपर-नीचे दोनोंही स्थितियों में वैज्ञानिक है; जैसे
मिट्टी--मिट्टी, लद्टू-लट्ट
र ध्वनि के चारों प्रयोग वस्तुत: अलग-अलग न होकर 'र' के कोणीयपरिवर्तन मात्र हैं। इनका प्रयोग हूबहू किया जाए।
'र' का चौथा प्रयोग (^) मृर्धन्य वर्णों में किया जाता है। राष्ट्, ट्रूक, ड्रम,टुण्ड्रा आदि।
संज्ञा शब्दों के अन्त में 'ई' का प्रयोग होना चाहिए 'यी' का नहीं;जैसे- भलाई, पिटाई, कमाई, पढ़ाई आदि।
नासिक ध्वनियों एवं उनमें प्रयुक्त वर्ण प्रतीकों के संयोग को लेकर यदिसजग रहा जाए तो इनमें से किसी प्रयुक्त को हटाने की जरूरत नहीं है। येसभी प्रतीक एक-दूसरे से अलग व अर्थभेदक हैं। नासिक वर्णों कोअनुस्वार तथा अनुनासिक में बॉटा जाता है। अनुस्वार ध्वनियों के उच्चारणमें नाक की भूमिका होती है, जबकि अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण मेंनाक व मुख दोनों का सहयोग होता है।
अनुस्वार ध्वनियों के उच्चारण में बिन्दी या बिन्दु के प्रतीक को उपयोगहोता है, जबकि अनुनासिक ध्वनियों के लिए अर्द्धचन्द्र विन्दु (") काप्रयोग होता है।
अनुस्वार ध्वनियाँ प्रत्येक वर्ण के पंचमाक्षरों के रूप में ही जानी जाती हैं।जबकि अनुनासिक ध्वनियाँ अलग-अलग होती हैं। अनुस्वार ध्वनियों यापंचमाक्षरों के लिए प्रतिस्थापक प्रतीक बिन्दी या बिन्दु के अतिरिक्तकहीं-कहीं अर्द्धपंचमाक्षर का प्रयोग भ्रम का कारण हो सकता है, परन्तुयह प्रयोग वैज्ञानिक है।
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